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राजस्थान की चित्र शैलियां | Rajasthan ki chitrakala.

 राजस्थान की चित्रकला नोट्स | rajasthan ki chitrakala notes.

राजस्थानी चित्र शैली की उत्पत्ति लगभग 1500 ई. मे हुई। सर्वप्रथम गुजरात के कुछ चित्रकार राजस्थान के मेवाड मे आए । जिससे राजस्थान मे सबसे पहले मेवाड़ चित्र शैली का जन्म हुआ । इसलिए मेवाङ को राजस्थान की चित्रकला की जन्म भूमि कहा जाता है।

rajasthan ki chitrakala


राजस्थान की चित्रकला कला का सर्वप्रथम वैज्ञानिक अध्ययन आनन्द कुमार स्वामी ने कीया। जिनको राजस्थानी चित्रकला का जनक(janak) कहा जाता है ।
राजस्थान की चित्र शैलीयो(chitrakala shili) को भोगौलिक एवं सांस्कृतिक रूप से 4 भागों मे बांटा गया है। जिन्हें स्कुल कहा गया है । तथा इन स्कूलो को पुनः कई उप भागो मे विभाजित कीया गया है । जिसमे प्रत्येक शैली की अलग-अलग विशेषताएं एवं उत्पत्ति काल है ।

राजस्थानी चित्र कला का नामकरण

rajasthani chitrakala को रामकृष्णदास ने राजस्थानी चित्र, N.C मेहता ने हिन्दु शैली, गांगुली व हैवन ने राजपुत चित्रशैली तथा कर्न जेम्स टाॅड ने राजस्थान की चित्रकला को राजस्थान चित्र कहा है ।

राजस्थान शित्र शैली का वर्गीकरण

1. मेवाङ स्कुल ऑफ पेटिंग

इसमे मेवाङ/उदयपुर, चावण्ड, नाथद्वारा एवं देवगढ़ चित्रशैलियां मेवाङ स्कुल मे आती है ।

2. मारवाङ स्कुल ऑफ पेटींग

इसमे जोधपुर, बीकानेर, नागौर,किशनगढ़, जैसलमेर एवं अजमेर शैलीयां आती है ।

3.हाङौती स्कुल ऑफ पेटिंग

इसमे कोटा एवं बूंदी चित्र कला आती है ।

4. ढंढाङ स्कुल ऑफ पेन्टिंग

इसमे आमेर, जयपुर, शेखावटी, टोंक(उणियारा) चित्र कलाऐ आती है ।

राजस्थान की चित्र कला शैलियां (rajasthan ki chitrakala shili)

मेवाङ/उदयपुर चित्र शैली

मेवाड़ चित्र काला का प्रारम्भ राणाकुंभा के शासन काल मे माना जाता है । इस दौरान गुजरात के चित्रकार राजस्थान आये थे । यह चितेरे पहले गुजरात मे जैन शैली से सम्बंधित चित्र बनाया करते थे । इसलिए मेवाङ शैली पर गुजराती एव जैन शैली का प्रभाव दिखाई देता है ।

मेवाङ शैली का स्वर्ण काल

महाराणा जगत सिंह प्रथम का काल इस चित्र कला का स्वर्ण काल रहा है । इस समय सर्वाधिक चित्र जैसे रामकाव्य, कृष्ण काव्य, रीति काव्य, रागरागिनी आदि चित्रो को चित्रण हुआ है ।
इन्होने मेवाङ शैली का एक स्वतंत्र विभाग तस्वीरों रो कारखानों/चितेंरो की ओबेरी बनाया । यह स्थान उदयपुर के चन्द्रमहल/सिटी पैलेस मे स्थित है ।

मेवाङ शैली के प्रमुख चित्र

1. श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णि(चित्रित ग्रन्थ)
इस चित्र को मेवाङ के महाराजा तेज सिंह के काल मे करमचन्द(1260) नामक चित्रकार ने ताङ के पन्नो पर चित्रित कीया । इस पर गुजराती एवं जैन शैली का प्रभाव है।
2. सुपाश्र्वनाथ चरित्रम
यह एक जैन धर्म का चित्रित ग्रन्थ है । इसका चित्रण हीरानन्द ने सन् 1422-23 मे  मोकल के काल मे किया।
3. पंचतंत्र ग्रन्थ
इसमे कालीना एवं दामीना नामक दो गीदङो का संवाद् है । इसके चित्रकार नुरद्दीन है ।
4. भागवत पुराण के चित्र
5. रामायण के चित्र
महाराणा अमर सिंह प्रथम के काल मे इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव पङा ।
महाराजा भीम सिंह के समय 1818 मे मेवाङ शैली पर इस्टइंडिया कम्पनी या यूरोपियन प्रभाव पङा ।
साहबुद्दीन, भैराराम, कृपाराम, मनोहर, हीरानन्द आदि इस शैली के प्रमुख चित्र कार थे ।

2. चावण्ड शैली

लूना चांडिया को मारकर महाराणा प्रताप ने चावण्ड बचाया और इन्हीं के काल मे यह शैली प्रारंभ हुई ।
अमरसिंह का काल चावण्ड शैली का स्वर्ण काल रहा है ।
अमरसिंह के समय 1605ई. मे नासिकरूद्दीन ने रागमाल ग्रन्थ का चित्रण कीया । यह सम्पूर्ण मेवाङ स्कुल का सबसे बङा चित्रित रागमाल ग्रन्थ है।

3. नाथद्वारा शैली

इस शैली का प्रारम्भ महाराणा राजसिंह के समय हुआ तथा इन्हीं का शासन काल नाथद्धारा शैली का स्वर्ण काल रहा है ।
सर्वप्रथम वृन्दावन के दो मूर्तिकार(पूजारी) गोविन्द व दामोदर 1671-72 मे भगवान कृष्ण की मूर्ति लेकर सिहाङ(नाथद्वारा) गांव आये । उन्होने यह नाथ जी का मन्दिर स्थापित कीया, जो वल्लभ संप्रदाय की प्रधान पीठ है ।
नाथ द्वारा चित्र शैली नाथ जी का चित्र


यह शैली ब्रज व मेवाङ शैली का मिश्रण है। इसे हवेली शैली के नाम से भी जाना जाता  है । क्योंकि वल्लभ संप्रदाय मे हवेली का अर्थ ब्रज होता है ।
वल्भ संप्रदाय मे भगवान श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप को नाथ कहा जाता है । इस शैल पर वल्लभ संप्रदाय का अधिक प्रभाव पङा है इसलिए भगवान श्रीकृष्ण के चित्र अधिक बने ।
नाथद्वारा चित्र शैली का चित्र


नाथद्वारा शैली की विशेषताएं

• कृष्ण लीलाओं का चित्रण
• पिछवाइयों व सांझी का चित्रण
• केले के वृक्ष की प्रधानता
• गायों का अंकन
• प्राकृतिक परिवेश का चित्रण
• माता यशोदा का अंकन
• गुसाईयो व पुजारियों का चित्रण
• नाथ जी के चित्र
• पट चित्र की प्रधानता
• जन्माष्टमी का चित्रण

देवगड चित्र शैली

1680 मे द्वारिकादास चुण्डावत के समय इसका प्रारंभ हुआ । देवगढ शैली को प्रकाश मे लाने का श्रेय डा. श्रीधर अंधारे को दिया ।
यह मेवाङ, मारवाङ तथा ढुढाॅङ तीन शैलियों का मिश्रण है  ।
देवगङ शैली के चित्र
देवगगढ का मोती महल व अंजना की ओबरी के भित्ति चित्र इस शैली के प्रसिद्ध है।
मारवाङ स्कुल ऑफ पेंटिंग

मारवाङ/जोधपुर चित्र शैली

मारवाङ चित्र शैली का आरम्भ मालदेव के शासन काल मे हुआ । इस समय उत्तराध्ययन सूत्र नामक ग्रन्थ (जैन) का चित्रण एवं  चोखमहल जोधपुर मे भित्ति चित्र बनाये गये।
सूरज सिंह के समय वीरजी (विठ्ठलदास ) ने रागमाला का चित्रण कीया ।
जससवन्त सिंह के समय मारवाड़ शैली मे कृष्ण लीलाओं का सर्वाधिक चित्रण हुआ जिस पर मुगल शैली का प्रभाव है ।
पर मुगल शैली का प्रभाव पङा ।

जोधपुर चित्रकला का  स्वर्ण काल

मान सिंह का शासन काल जोधपुर शैली का स्वर्ण काल रहा है । इस काल मे नाथ सम्प्रदाय से सम्बंधित ग्रन्थों का चित्रण हुआ । जैसे कि शिव पुराण, दुर्गा पुराण, नाथ चरित्र आदि । इसी दौरान मेहरानगढ़ दुर्ग मे मान प्रकाश पुस्तकालय का निर्माण करवाया।
मान सिंह के समय यह शैली मठो मे पोषित हुई।  महामन्दिर मे मतिराम नामक चित्रकार ने रसराज ग्रन्थ चित्रित कीया ।
मानसिंह ने वीरजी भाटी को दरबारी चित्रकार बनाया गया । जिसने जोधपुर शैली मे रागमाला ग्रन्थ का चित्रण कीया ।
शिवदास नारायण दास, अमरदास, किशनदास, छज्जू ,रतन जी भाटी आदि जोधपुर शैली के चित्रकार है ।

जोधपुर/मारवाड़ चित्र शैली की विशेषताएं

• इसमें लाल व पीले रंग का प्रयोग ज्यादा हुआ है ।
• बादलो का चित्रण
• प्रेम कहानीयो (जैसे कि ढोला-मारू, महेन्द्र मूमल) का चित्रण
• पुरूष को लम्बा चौङा तथा महिलाओं को ठिङने कद का बनाया जाता था।
• मरूस्थल का चित्रण
• घोङे का चित्रण
• ऊंट व कुत्ते का चित्रण
• आम के वृक्ष का चित्रण

बीकानेर चित्र शैली

बीकानेर चित्र शैली का प्रारंभ रायसिंह के समय हुआ । इस के काल मे रागमला तथा भागवत पुराण का चित्रण हुआ ।
महाराजा अनुपसिंह का इस शैली का स्वर्ण काल रहा है । इस दौरान सर्वाधिक चित्रकारो को चरण दी गयीं।  इस समय बीकनेर शैली पर द्रविङ शैली का प्रभाव पङा ।
बीकानेर मे दो प्रकार की चित्रकला कला थी ।

1 उस्ता कला

अनुपसिंह ने उस्ता कला के लिए अली रजा व रूक्नुद्दीन को लाहौर से बुलाया । इसमे ऊंट की खाल पर चित्रकारी की जाती थी ।
हेसामुद्दीन को उस्ता कला के लिए पद्म श्री दिया गया ।
कैमल हाईट ट्रेनिंग सेन्टर बीकानेर मे उस्ता कला सिखाई जाती है।

मथेरणा कला ।

मथैरणा चित्रकार जैनियों से सम्बंधित है । पहले ये जैन चित्र बनाया करते थे । इन्होंने बीकानेर के महाराजाओं के चित्र बनाएं।
इसमे गीले पलस्तर पर चित्रकारी होती थी जिसे बीकानेर मे आला गीला कहा जाता है।  शेखावाटी मे इसे पणो कहा जाता है  ।

बीकानेर चित्र शैली की विशेषताएं

बैंगनी, स्लेटी एवं बादामी रंगो का प्रयोग।
रेत के घोङो का चित्रण
फुल-पत्तियो का चित्रण
हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र मुस्लिम चित्रकारों द्वारा बनाए गये।
उस्ता चित्रकार अपना नाम, पिता का नाम व तिथी फारसी भाषा मे चित्रों पर लिखते थे ।
बीकानेर शैली पर पंजाबी, मुगल एव ढक्कनी शैलियों का प्रभाव पङा है ।

किशनगढ़ चित्र शैली

सावन्तसिंह(नागरीदास) का शासनकाल, किशनगढ़ शैली का स्वर्ण काल रहा है । इस चित्रकला को प्रकाश मे लाने कार्य एरिक डिक्सन व फैयान अली (1941-42) मे किया । वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव अधिक होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण के चित्र अधिक बनाएं गए ।
किशनगढ़ शैली के प्रमुख चित्र

बनी-ठणी

बनी-ठनी जिसका मूल नाम विष्णु प्रिया था । यह सावन्त सिंह की प्रेमिका थी । बनी-ठणी का चित्र मोरध्वज निहालचन्द के द्वारा राधा के रूप मे बनाया गया है । भारत सरकार ने इस पर 1973 ईस्वी मे डाक टिकट जारी कीया गया है ।
किशनगढ़ शैली बनी ठनी का चित्र


बनी-ठनी को एरिक डिक्सन ने मारवाङ की मोनालिसा कहा । इसे भारत की मोनालिसा एवं राजस्थान की मोनालिसा कहा जाता है ।

बनी-ठणी की विशेषताएं

पारदर्शी वस्त्र
तीखा नाक
नाक मे बेसरी नामक आभूषण
तीर कमान के समान नेत्र
हाथ मे कमल का फूल

नौका विहार चित्र

इसमे झील का चित्रण कीया गया ।
इसमे नाव, नाविक एवं बत्तख है ।

चांदनी रातो की संगोष्ठी

अमर चन्द के द्वारा चित्रित चित्र है ।

किशनगढ़ शैली की विशेषताएं

नारी का अधिक चित्रण
सफेद व गुलाबी रंग का अधिक प्रयोग किया गया ।
हासिये मे गुलाबी रंग भरा जाता था ।
महिलाओं के चित्रो मे बेसरी नामक आभूषण है ।
कांगङा चित्रकला का प्रभाव

अजमेर शैली

यह चित्र कला ईशायी शैली से प्रभावित है । इसमे साहिबा(महिला ), चांदा चित्रकार है ।

नागौर शैली

इसमे फीडे(बुझे हुए) रंगो का प्रयोग
पारदर्शी कपङे पर चित्रित कीये जाते थे ।

जैसलमेर शैली  ।

इसमे मूमल के चित्र अधिक बनाये गये । तथा इस पर अन्य कीसी भी शैली का प्रभाव नहीं पङा है ।
हाङौती स्कुल ऑफ पेन्टिंग

बूंदी शैली

इस चित्र कला का प्रारंभ सूरजन के समय हुआ तथा उम्मेद सिंह का समय स्वर्ण काल रहा है । उम्मेद सिंह ने तारागढ़ महल मे एक रंग शाला या चित्र शाला का निर्माण करवाया। इस महल को भित्ति चित्रों का स्वर्ग कहते है ।
अहमद अली, साधुराम, रामलाल, सुरजन, श्रीकृष्ण, मोहन आदि बुंदी शैली के प्रमुख चित्रकार है ।

बुदी शैली की विशेषताएं

हरे रंग की प्रधानता
प्रकृति का चित्रण अधिक
बूंदी का किला अपने भित्ति चित्रों के लिए जाना जाता है।
केले, खजूर, सरोवर का चित्रण
मोर का चित्रण लगभग सभी शैलियों मे मिलता है परन्तु नाचते हुए मोर का चित्र केवल बूंदी शैली मे मिलता है ।

कोटा चित्र शैली

रामसिंह के समय यह शैली शुरू हूई । वल्लभ संप्रदाय के प्रभाव के कारण भगवान श्रीकृष्ण के चित्र अधिक बने । इस मे शिकार के दृश्यों की प्रधानता के कारण बूंदी शैली को शिकार शैली भी कहा जाता है । इसमे राजाओं के साथ-साथ रानीयों को भी शिकार करते हुए दर्शाया गया है । झालाओं की हवेली कोटा मे है जिसके भित्ति चित्र इस शैली मे बने है ।
चित्रकार डालू ने इस शैली मे रागमाल नामक ग्रन्थ चित्रित कीया । यह कोटा चित्रकला का सर्वोत्कृष्ट चित्रित ग्रन्थ है ।
महाराजा उम्मेद सिंह का काल इस शैली का स्वर्ण काल रहा है 
कोटा शैली मे कागज पर कागज रखकर जो चित्र बनाया जाता था उसे वसली कहा जाता है ।

कोटा चित्र कला की विशेषताएं

नारी सौन्दर्य का अधिक चित्रण
शिकार के दृश्यों का चित्रण
महिलाओं को पशुओं का शिकार करते हुए दर्शाया गया है ।
ढूॅढाङ चित्र शैली
इस शैली पर सबसे पहले एवं सर्वाधिक मुगल प्रभाव रहा है ।

आमेर चित्र शैली

मानसिंह के समय आमेर शैली का स्वतंत्र विकास प्रारंभ हुआ । इस समय रज्जनामा ग्रन्थ एवं यशोधरा का चित्रण हुआ है ।
मिर्जा राजा जयसिंह
आमेर शैली मे मिर्जा राजा जयसिंह के समय भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं एव अपनी रानी चन्द्रावती के लिए बिहार सतसई का चित्रण करवाया ।
पुष्पदत्त, मुन्नालाल, हुकमचंन्द एवं मुरली मुख्य चितेरे थे ।
आमेर शैली के चित्रकारो को याद करने की ट्रिक पुष्प ने मुन्नालाला के हुक्कम से मुरली बजाई ।

विशेषता

सर्वप्रथम मुगल प्रभाव आमेर शैली पर पङा ।
प्राकृतिक रंगो का प्रयोग ।
सबसे ज्यादा भित्ती चित्रों का प्रयोग ।

जयपुर चित्र शैली

सवाई जय सिंह के समय जयपुर शैली का प्रारंभ हुआ । इन्होंने जयपुर मे सुरतखाना का निर्माण करवाया है ।
सवाई ईश्वरी सिंह
इनके काल मे साहिब राम ने ईश्वरी सिंह का आदमकद चित्र बनाया जिसे सहीब कहते है । यह चित्र सिटी पैलेस जयपुर मे स्थित है ।
लाल चन्द
इन्होने पशुओं की लङाई के चित्र बनाएं।  जिसमे हाथियो की लङाई प्रमुख है  ।
सवाई माधोसिंह के काल मे पुंडरि हवेली (जयपुर) के भित्ती चित्र बनाएं गए ।
सवाई प्रताप सिंह के काल मे इस शैली का सर्वाधिक विकास हुआ । इसलिए इसे जयपुर चित्रकला का स्वर्ण काल कहते है ।
सवाई रामसिंह द्वितीय के काल मदरसा ए हुनुरी का निर्माण हुआ हुआ । जिसे वर्तमान मे महाराजा स्कुल ऑफ आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट कर दिया है ।
चिमना, कूशला, हुकमा, उदय, गोपाल, साहिबराम, लिलचन्द ,मोहम्मद शाह आदि जयपुर चित्र शैली के प्रमुख चित्रकार है ।

जयपुर शैली की विशेषताएं

लाल, हरा, पीला तथा केशरिया रंग का प्रयोग।
हासियें मे गहरे लाल रंग का प्रयोग ।
पीपल एवं बरगद के वृक्ष का अंकन ।
अश्व तथा मोर के चित्र ।
आदमकद का चित्रण।
भित्ति चित्र।
कुरान पढ़ती हुई शहजादी व फकीर को भिक्षा देती स्त्री का चित्र।
नियिका का गर्विता के रूप मे चित्रण ।

अलवर चित्र शैली

महाराजा प्रताप सिंह के काल मे इस चित्रकला का विकास शुरू हुआ तथा इस शैली का स्वर्ण काल महाराजा विनय सिंह का काल रहा है । इस समय बलदेव व गुलाब अली ने शेखसादी की रचना 'गुलिस्ता' की पाडुलिपी का चित्रण कीया । इस चित्र मे जवाहर शाही का प्रयोग कीया गया है । चित्रकार मूलचन्द हाथी दांत पर चित्रण करते थे ।

अलवर शैली की विशेषताएं

इस शैली का मुख्य रंग हरा है ।
उज्ज्वल एवं चिकने रंगों का प्रयोग ।
पीपल के वृक्ष के चित्र।
वेश्या/गणिका का चित्रण ।
मुगल, ईरानी व जयपुर शैली प्रभाव पङा(MIJ)
योगासन का चित्रण ।
बलदेव, सलिगराम, गुलाब अली, नन्दलाल/नंदराम, मुलचन्द, नानगराम, छोटेलाल, डालचन्द, जमनादास, जगमोहन एवं बुद्धाराम अलवर शैली के प्रमुख चित्रकार है ।

शेखावाटी चित्र शैली

इस शैली मे भित्ति चित्र बने जिसे शेखावाटी शैली मे पणा कहा जाता है । जिसमे सर्वाधिक पीली रंग का प्रयोग हुआ है । इस शैली पर यूरोपीयन शैली का प्रभाव पङा है ।
उदयपुर वाटी(झुन्झुनू) में जोगीदास छत्तरी के भित्ति चित्र प्रसिद्ध है । जिनके चित्रकार देवा है ।

अणियार/टोंक चित्र शैली

यह जयपुर व बुदी चित्रकला के मिश्रण है । इस शैली के चित्रकार काशी, धीम, भीमा, मीरबक्श तथा रामलयन है । याद करने के इस शैली के अधिकतर चितरकारो के नाम मे ई की मात्रा है ।

राजस्थान चित्र शैली के आधुनिक चितेरे

 रामगोपाल विजयवर्गीय

इनको पद्मश्री पुरुस्कार मिला है ।

गोवर्धन लाल बबा

इनको भीलो का चितेरा कहा जाता है ।
परमानन्द चोयल
इन्हें भैसों का चितेरा का जाता है ।
भूरसिंह शेखावत
इन्होने क्रान्तिकारियों तथा देशभक्त नेताओं के चित्र बनाए ।
देवकीनन्दन शर्मा
इन्होनें प्रकृति के दृश्यों के चित्र अधिक बनाए।

राजस्थानी चित्र कला की विशेषताएं 

1. राजस्थानी चित्रकला मे वर्ण विधिधता, विषय वस्तु की विविधता, लोक जीवन का चित्रण एवं  प्रकृति का चित्रण देखने को मिलता है ।
2. राजस्थानी चित्रशैली मे गहरे तथा चटकीले रंगों का प्रयोग कीया गया गया है ।
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